अकेली
By वेब स्टोरी
कनिका वृद्धाश्रम में रहेगी। यह रोज़ रोज़ का अपमान उसके लिए असह्य था।
एक कांच का ग्लास ही तो टूटा था उससे और निहारिका ने बिना सोचे समझे कितना बुरा भला कह दिया था। वह भावुक हो उठी और भीगी पलकों में आँसू छुपाये करीने से ट्रंक में अपना सामान लगाने लगी। उसने काँपते हाथों से कुणाल और अपनी तस्वीर हाथ में उठाई तो पलकों पर रुके अश्रु टपक गए। अपनी धोती के पल्लू से तस्वीर को साफ़ करते हुए वह कुणाल को निहारने लगी।
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उसे अपनी और कुणाल की प्रथम मुलाक़ात स्मरण हो आई जब कुणाल अपने माता पिता के साथ उसे देखने आये थे। देखते ही उसकी सुंदरता पर रीझ कर शादी का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया था। उनके आकर्षण से वह भी अछूती नहीं रह सकी थी। कुणाल का आयात निर्यात का कार्य था और घर में उसके कदम रखते ही व्यापार बुलंदियों को छूने लगा था। धीरे धीरे कुणाल की गिनती अव्वल दर्जे के व्यापारियों में होने लगी थी। कुणाल के भरपूर प्रेम ने कनिका के जीवन में खुशहाली भर दी थी।
उसके पाँव ज़मीन पर नहीं पड़ते थे परन्तु उसे क्या पता था कि ये खुशियाँ शीघ्र ही बिखर जाएँगी। सहसा व्यापार में घाटा होने के कारण कुणाल को दिल का दौरा पड़ा और वह चल बसा। कनिका का जीवन वीरान हो गया। एक महीने तक तो उसे अपने जीवन की सुध ही नहीं थी। वह दिन रात रोती रहती थी ,स्वयं को असह्य समझती थी। छोटी छोटी बातों पर उसे कुणाल के न होने का आभास होता था। कुणाल की मृत्यु की कानूनी कार्यवाही शुरू हुई तो कदम कदम पर उसे मार्गदर्शन की आवश्यकता पड़ी। इस कानूनी कार्यवाही में उसे कोर्ट के कई चक्कर लगाने पड़े।
इस भाग दौड़ ने उसे पूर्ण रूप से सशक्त बना दिया था।यहाँ उसकी सद्बुद्धि और उच्च शिक्षा ने ही साथ दिया था। कई दिन का परिश्रम रंग लाया और कानूनी तौर तरीकों के सिलसिले से छुट्टी प्राप्त हुई। उस दिन वह थकी हारी घर पहुँची और हाथ मुँह धो कर चाय पीने की इच्छा से शक्कर का डब्बा खोला तो पाया कि शक्कर समाप्त हो गई थी।
उसने बेटे समीर से पड़ोस के निरंजन बाबू के घर से शक्कर मंगवाने का सोचा परन्तु बेटे को स्कूल के कार्य में मग्न देख स्वयं ही जाने का निर्णय लिया। शक्कर से भरी कटोरी कनिका को पकड़ाते हुए निरंजन ने उसका हाथ धीरे से दबाते हुए कहा ,”कनिका जी कभी भी कोई आवश्यकता हो तो निःसंकोच मदद लीजियेगा ,मै आपकी मदद के लिए सदा तत्पर हूँ। “कनिका तभी समझ गई कि निरंजन की बातों में अपनत्व होते हुए भी इरादों में पवित्रता नहीं है।
कनिका को निरंजन की आँखों में वासना नज़र आयी थी। उसका मन हुआ कि वह अभी निरंजन के मुँह पर झापड़ मार दे। कुणाल के होते हुए भी कई बार निरंजन ने उसका रास्ता रोकने का प्रयत्न किया था पर उस वक्त उसने ध्यान नहीं दिया था। उसे लगता था कि भ्रम है उसका परन्तु अब जब कुणाल नहीं है तब निरंजन का इस तरह पेश आना उसे अच्छा नहीं लगा था। वह जानती थी कि समाज में निरंजन जैसे लोग उपस्थित हैं और उसे ऐसे लोगों से सतर्क रहना चाहिए।उसने मन ही मन फैसला लिया कि चाहे जो हो जाए आज के बाद वह कभी निरंजन से मदद नहीं लेगी। संभवतः निरंजन बाबू के गलत व्यवहार ने ही उसे बाध्य किया था जो वह नागपुर से सब कुछ समेट कर सपनों की नगरी मुंबई पलायन कर गयी थी। कहने के लिए वह इस दुनिया में अकेली रह गई थी परन्तु उसके साथ कुणाल की हसीन यादें थीं। जानी मानी कंपनियों में काम करते हुए ,धीरे धीरे उसकी ज़िन्दगी पटरी पर आ गई थी। उसने वर्षों तक स्वयं को पूर्ण रूप से काम में डुबो दिया था और इस दौरान समीर भी विद्यार्थी जीवन से निकल कर अफसर बन गया था।
एक दिन खाने की छुट्टी में वह अपने कुछ सहकर्मियों के साथ बैठी खाना खा रही थी कि सबने मिलकर उसके सामने पुनर्विवाह का प्रस्ताव रख दिया। उनका कहना था कि जीवन में एक साथी की आवश्यकता हर किसी को पड़ती है और खासतौर पर वृद्धावस्था में दोनों एक दूसरे के पूरक बन जाते हैं। जहाँ तक समीर का सवाल है भविष्य में उसकी अपनी ज़िन्दगी होगी ,ऐसे में अकेलेपन से बचने के लिए पुनर्विवाह श्रेष्ठ है। फिर कनिका की ऐसी कोई उम्र नहीं हुई थी कि पुनर्विवाह करने में संकोच हो। अचानक मिले इस प्रस्ताव से वह सकपका गई परन्तु फिर संभलते हुए बोली ,”कुणाल की यादों के सहारे ही इस जीवन को मैं व्यतीत करना चाहती हूँ ,यह अधिकार मैं किसी और को नहीं देना चाहती ,आशा है भविष्य में आप लोग ऐसी बातें मेरे सामने नहीं करेंगे। उसने अपनी भावनाओं पर काबू रखते हुए खाना समाप्त किया और पलकों पर रुके अश्रुओं के गिरने से पहले ही वहाँ से उठ कर चली गई। शाम को गरम चाय की चुस्की लेते हुए दिन में घटी घटना के बारे में वह सोचने लगी। उसने दर्पण में स्वयं को देखा तो उसे लगा कि इन वर्षों में वह काफी बदल गई है। उसने अपने चेहरे को गौर से देखा। चेहरे पर किसी प्रकार का कोई श्रृंगार नहीं था ,फिर भी माथे पर एक छोटी सी बिंदी और होठों की लाली ने एक अनोखा आकर्षण उत्पन्न कर रखा था ,काले बालों पर हलकी सफेदी थी। गाल पर आई लट को उसने करीने से कानों के पीछे किया तो सुनी कलाई और खाली मांग पर उसका ध्यान चला गया। पति से जुड़े इस श्रृंगार का उसके जीवन में कोई महत्त्व नहीं है ,यह आँखों में उभर आई नमी ने उसे एहसास करा दिया था। सहसा उसका हृदय पूछ बैठा ,”क्या समीर को अपने पिता की कमी महसूस नहीं होती होगी। क्या उसे पुनर्विवाह करना चाहिए ?परन्तु अगले ही पल कनिका को लगा जैसे कुणाल उसके पीछे ही खड़ा है और कह रहा है ,”तुम सिर्फ मेरी हो। “कनिका ने आँखे मूंदी तो दो मोती टपक गए। उसने अटल निर्णय लिया ,”वह कुणाल की थी और सदा उसकी ही रहेगी।
कनिका अक्सर घर के पास वाले बगीचे में शाम के वक्त जा बैठती थी। बगीचे के पुष्पों की सुगंध उसे सुकून देती थी। रोज़ की तरह उस दिन भी वह बगीचे में बैठी थी। बगीचे के बीचों बीच बने पार्क में छोटे बच्चे खेल रहे थे। वह उन बच्चों का खेल देख रही थी कि अचानक उसकी निगाह दूर बेंच पर बैठे दंपत्ति पर चली गई। वह एक नवविवाहिता जोड़ा था जो दुनिया से बेखबर एक दूसरे से सिमट कर बैठा हुआ था। उसे याद आया कि शादी के बाद कुणाल और वह भी इसी तरह बैठे हुए थे। कनिका को फूलों का शौक था यह जान कर कुणाल ने उसके बालों में गजरा लगा दिया था। वह शर्मा कर बोली थी ,”कुणाल ,क्या तुम ऐसे ही सदा मेरे बालों में गजरा लगाओगे। “कुणाल की स्वीकृति पा कर वह मन ही मन प्रसन्न हुई थी। फिर तो जब भी वह बाहर जाते कनिका के बालों में गजरा ज़रूर महकता था। इन्हीं यादों में वह खोई हुई घर की ओर चल दी। घर आकर उसने कुणाल की तस्वीर निकाली और उसे बहुत देर तक निहारती रही।
कनिका को अब समीर के विवाह की चिंता होने लगी थी। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह अकेली इस ज़िम्मेदारी को कैसे निभाएगी ?परन्तु समीर ने निहारिका से प्रेम विवाह करने का प्रस्ताव रखा तो कनिका फूली न समाई। उसे लगा जैसे उसकी ज़िन्दगी भर का श्रम सफल हो गया। बेटे का विवाह हुआ तो निहारिका जैसी सुन्दर बहू को पाकर वह निहाल हो गई। उसे तो निहारिका के रूप में जैसे हीरा ही मिल गया था। निहारिका का उसके प्रति सदव्यवहार उसे सुकून पहुँचाता था। परन्तु जैसे जैसे समीर तरक्की की सीढ़ी चढ़ता गया वैसे वैसे निहारिका का बर्ताव कनिका के प्रति बदलता गया। वह अभिमान में इतनी चूर हो गई थी कि छोटे बड़े का फर्क भी भूल गई थी। ऐसे में कनिका ने समीर की टोह लेनी चाही थी। उसे आशा थी कि समीर निहारिका को समझायेगा परन्तु उसकी तरफ से कनिका को इस मामले में कोई सकारात्मकता नज़र नहीं आई। उल्टा वह कनिका को ही जवाब दे कर चुप करा देता था। आखिरकार जब सिर से ऊपर पानी होने लगा तो कनिका ने ही वृद्धाश्रम जाने का निर्णय लिया था। कनिका ने जब अटैची बंद की तो उसका क्रोध शांत हो चुका था। वह जल्दबाज़ी तो नहीं कर रही ?क्या अपना घर छोड़ कर सब कुछ ठीक हो जाएगा ? जिस स्नेह व आदर की वह हकदार है उसे प्राप्त हो जाएगा ?क्या वृद्धाश्रम जाना ही इस समस्या का एकमात्र हल है ?अपने ही अंदर अनेक प्रश्नों के उत्तर पाने के लिए वह बेचैन हो गई। उसकी अंतरात्मा बोल उठी ,नहीं नहीं वह अपने बच्चों से अलग नहीं रह सकती। वह बड़े होने के नाते उन्हें समझाएगी ,स्वयं को इस घर को सुधारने का एक अवसर ज़रूर देगी । अपने रक्त से सींच कर उसने अपने कुणाल के घर को बनाया था यों एक हलके से झोंके से बिखरने नहीं देगी। वह अपने ही ख्यालों में गुम थी कि सहसा निहारिका का स्वर सुन कर चौंक गई।”मुझे माफ़ कर दो ,आगे से ऐसा नहीं होगा ,एक मौका और दे दो। “परन्तु समीर की आवाज़ में क्रोध था ,”मुझे कुछ नहीं सुनना,तुम भी घर से जा सकती हो ,तुम मेरी माँ का सम्मान नहीं कर सकतीं तो मुझे भी तुम्हारी आवश्यकता नहीं है ,तुम्हे क्या पता माँ ने कितने कष्टों से पाला है मुझे। “उधर समीर न जाने क्या क्या कहे जा रहा था और इधर कनिका का दिल रो रहा था। उसने समीर के कमरे में प्रवेश किया तो निहारिका बहू उसके क़दमों में गिर पड़ी ,”मुझे माफ़ कर दीजिये मम्मीजी घर छोड़ कर मत जाइये। “कनिका का दिल पूर्ण रूप से पिघल गया था और उसने निहारिका को अपने गले से लगा लिया।

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